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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

सतीत्व पर पहरा


किसी जमाने में ‘सतीत्व-बेड़ी' नामक एक बेड़ी हुआ करती थी। लोहे या इस्पात से निर्मित एक गोलाकार बेड़ी, जिसके सामने की तरफ, धातु का एक तिकोना पत्तर जुड़ा होता था! पत्तर के बीचोंबीच नुकीले दाँतवाला एक छेद होता था। यह बेड़ी औरतों की कमर में पहना दी जाती थी। वह तिकोना पत्तर औरत के यौनांग को। ढंक रखता था। पत्तर के बीचोंबीच जो छेद था, ताकि पेशाब करने में सहूलियत हो! यह छेद दाँत की तरह धारदार होता था। ताकि 'पराए मर्द' उस छेद का इस्तेमाल न कर सकें। दुनिया के किसी-किसी देश में यह ‘सतीत्व-बेड़ी' इस्तेमाल की जाती थी और कव से, इसकी सही-सही जानकारी सुलभ नहीं है, फिर भी अंदाज़ा लगाया जाता है कि मध्य-प्राच्य और एशिया में पहली बार यह बेड़ी बनाई गई थी। यूरोप में भी ऐसी बेड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। मध्य-प्राच्य में क्रूसेड योद्धा, युद्ध में जाने से पहले, अपनी बीवियों को लोहे की यह बेड़ी पहना जाते थे, ताकि बीवियाँ पति की अनुपस्थिति का फायदा न उठाएँ। सिर्फ क्रूसेड योद्धा ही यह काम करते थे, ऐसी बात नहीं है। दूर कहीं यात्रा पर जाने से पहले, योद्धाओं के अलावा अन्यान्य मर्द भी अपनी बीवियों को यह बेड़ी पहना जाते थे। यह बेड़ी सिर्फ पति के हुक्म पर ही औरतों को पहनना पड़ती थी। ऐसी बात भी नहीं थी, समाज के हुक्म पर भी पहनना पड़ती थी। इटली में तो यह रिवाज था ही, चीन में भी यह बेड़ी बहुतायत से इस्तेमाल की जाती है। किसी-किसी का तो कहना है कि यह रिवाज थाइलैंड में भी प्रचलित था। सन् 1889 में पचिंगर नामक एक जर्मन नृत्तत्त्वविद ऑस्ट्रिया के शहर में पहुँचे, जहाँ वे पंद्रहवीं शती में निर्मित कोई पुराना गिरजाघर के सुधार-संस्कार का काम देखने गए थे। गिरजाघर के फर्श पर जो काठ बिछा हुआ था, उसे हटाते वक्त, उन्होंने उसके नीचे एक गड्ढा देखा। उस गड्ढे में एक ताबूत था। उस ताबूत को हाथ लगाते ही सड़ा हुआ काठ झुरझुराकर झरने लगा और अंदर से एक कंकाल निकल आया। उसके लंबे-लंबे बाल देखकर जाहिर था कि वह किसी औरत का कंकाल था। बदन पर कपड़ों का जो टुकड़ा बच रहा था, उससे अंदाज़ा लग गया कि वह पोशाक सत्रहवीं शती की थी। पोशाक हटाने के बाद, उन्हें उस कंकाल की कमर में लोहे की एक बेड़ी लिपटी हुई नज़र आई। सतरहवीं शती की शुरुआत में निर्मित, इस सतीत्व-बेड़ी के छेदवाले पत्तर में कुल इक्कीस दाँत थे। इस वेड़ी को देखकर, जर्मन नृत्तत्त्वविद पंचिगर विस्मित हुए थे या नहीं, पता नहीं। लेकिन मैं पुरुष की इस उद्भावन क्षमता पर चकित हूँ। वे लोग सतीत्व बेड़ी में ताला जड़कर, चावी अपनी जेब के हवाले करके, घर से निकल पड़ते थे। लेकिन उनका अपना यौनांग खुला रहता था। उस यौनांग को जहाँ-तहाँ इस्तेमाल करने में कोई बाधा नहीं थी। लेकिन घर में बीवी के यौनांग इस्तेमाल करने के बारे में संदेहमुक्त रहने के लिए, उसे इस किस्म की लोहे की पोशाक पहनाने में बूंद भर भी दुविधा नहीं करते थे। मर्द की क्रूरता की यह बड़ी मिसाल है।

इस दुनिया के मर्दो ने औरत के सतीत्व की रक्षा के लिए लोहे की वेड़ियाँ : तैयार की थीं। ये मर्द औरत का सतीत्व प्रमाणित करने के लिए, उसे मरे हुए पति की चिता पर बिठा दिया करते थे। ये मर्द औरत के सतीत्व की रक्षा के लिए आज भी सैकड़ों बीभत्स उपाय इस्तेमाल करते हैं। औरत पर सैकड़ों तरह के नियम-कानून लादकर, औरत सतीत्व का मज़ा लेते रहे हैं! पहले लोहे का भाला इस्तेमाल किया जाता था। आज समाज की उँगली के इशारे पर ही यह काम हो जाता है। समाज ने औरत को हिदायत दी कि वह घर में रहे; पति के हुक्म के बिना घर से बाहर मत निकलना; पराए मर्द से हेलमेल मत रखना। अगर हेलमेल रखा, तो तलाक़! अगर मेलजोल रखा, तो मरण! आजकल औरत को शायद उस किस्म की बेड़ियाँ नहीं पहनाई जातीं। लेकिन उसकी कमर में एक अदृश्य बेड़ी ज़रूर बँधी होती है। अदृश्य एक लोहे के पत्तर से औरत का यौनांग ढंके रखने के लिए, पेशाब करने के छेद में सौ दाँत जड़े होते हैं। पुरुष के शक का कोई ओर छोर नहीं होता! अविश्वास की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन सिर्फ औरत को, अकेले ही, सतीत्व की रक्षा क्यों करना होगी? पुरुष के परनारीगमन में आदिम, मध्ययुग और आधुनिक युग...यानी किसी भी युग में, कोई वाधा नहीं डाली गई। ‘सतीत्व रक्षा' शब्द भी मर्द ने ही रचा गढा है! लोहे की बेडी भी मर्द ने ही तैयार की है। जिस समाज-व्यवस्था में औरत को सती होना पड़ता है, यह व्यवस्था भी मर्दो ने ही तैयार की है। खुद मर्द क्या अपने लिए ऐसी परेशानीवाली, अपमानजनक कोई व्यवस्था ग्रहण करने को राजी होगा? बेशक, नहीं! इसीलिए सारे अपमान, सारी परेशानी, सारी जलन-यंत्रणा अकेली औरत के हिस्से में आती है! औरत के हिस्से में ही दुःसह जीवन धकेल दिया गया है।

बहुतों का कहना है कि असल में औरत की कोख में जो संतान है, वह पति की ही है या नहीं। यह साबित करने के लिए औरत को सती होना पड़ता है। पति अगर अन्यत्र दस संतानों के बीज बो आए, तो कोई हर्ज़ नहीं। सिर्फ एक जरायु की संतान के लिए ही उसका सारा मोह सारी दिलचस्पी उमड़ी पड़ती है। उन लोगों ने इसकी वजह भी आविष्कार कर ली है, उन लोगों ने कहा है-जो पूरी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होगा, उसके मामले में पूरी तरह निश्चित होना होगा। उत्तराधिकारी अगर किसी दूसरे की कोख का हुआ, तो यह पति के पौरुष का अपमान है। अहा, पौरुष! पुरुष के इस पौरुष तले, औरत जाने कितने युगों से पिसती आ रही है। जाने कितने ही युगों से नारी का व्यक्तित्व, नारी का सर्वस्व पिसता आ रहा है! औरत ने क्या पुरुष के पौरुष की रक्षा में मदद के लिए ही जन्म लिया है? उसकी क्या कोई अलग सत्ता नहीं है?

मर्द की संतान को वैध प्रमाणित करने के लिए औरत ने जन्म नहीं लिया। किसने कहा है कि औरत की जिंदगी, मर्द के स्वार्थ पर उत्सर्ग होने के लिए है? औरत उनके वैध-अवैध की परवाह क्यों करे? यह तो किसी नष्ट समाज का नियम है, जिसका जाल तोड़कर, औरत आज तक बाहर नहीं निकल पाई है! लेकिन, उसे बाहर निकलना होगा! उसे साबित करना होगा कि उसकी ज़िंदगी उसकी निजी जिंदगी है! किसी भी मर्द को यह हक नहीं है कि वह औरत के सतीत्व पर ताला जड़कर, चाबी खुद हथिया ले! इसके अलावा नारी की मुक्ति नहीं है। जिस तरह औरत के लिए आर्थिक आज़ादी ज़रूरी है उसी तरह यौन स्वाधीनता भी उसके लिए ज़रूरी है। उसके पास चाहे जितनी भी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आज़ादी मौजूद हो, वह सच्चे मायनों में हरगिज आज़ाद नहीं है। वैसे औरत की यौन-स्वाधीनता की बात सुनकर, बहुतेरे लोग नाक सिकोड़ेंगे! वे लोग कहेंगे-'छिः छिः औरत के लिए यौन-स्वाधीनता कैसी? तब तो वह वेश्या हो जाएगी।' औरत अगर समूची स्वाधीनता अर्जित करना चाहती है तो समूचा समाज बेशक, उसे वेश्या कहे, मर्द की दासी बनने से कहीं बेहतर है! सच तो यह है कि अन्य सभी स्वाधीनता की तरह, औरत के लिए यौन-स्वाधीनता भी ज़रूरी है। औरत को अगर किसी भी तरह की आज़ादी मिल जाए, तो उसे 'वेश्या' या 'नष्ट औरत' कहकर, उसे डर दिखाया जाता है। यह सब पुरुष रचित साजिश को नोचकर, औरत अगर सच ही इंसान बनना चाहती है, तो उसे अपने तन-मन की सारी स्वाधीनता अर्जित करना ही होगी।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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